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उद॑पप्तन्नरु॒णा भा॒नवो॒ वृथा॑ स्वा॒युजो॒ अरु॑षी॒र्गा अ॑युक्षत। अक्र॑न्नु॒षासो॑ व॒युना॑नि पू॒र्वथा॒ रुश॑न्तं भा॒नुमरु॑षीरशिश्रयुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud apaptann aruṇā bhānavo vṛthā svāyujo aruṣīr gā ayukṣata | akrann uṣāso vayunāni pūrvathā ruśantam bhānum aruṣīr aśiśrayuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। अ॒प॒प्त॒न्। अ॒रु॒णाः। भा॒नवः॑। वृथा॑। सु॒ऽआ॒युजः॑। अरु॑षीः। गाः। अ॒यु॒क्ष॒त॒। अक्र॑न्। उ॒षसः॑। व॒युना॑नि। पू॒र्वथा॑। रुश॑न्तम्। भा॒नुम्। अरु॑षीः। अ॒शि॒श्र॒युः॒ ॥ १.९२.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे प्रातःकाल की वेला कैसी हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो (अरुणाः) रक्तगुणवाली (स्वायुजः) और अच्छे प्रकार सब पदार्थों से युक्त होती हैं वे (उषसः) प्रातःकालीन सूर्य की (भानवः) किरणें (वृथा) मिथ्या सी (उत्) ऊपर (अपप्तन्) पड़ती हैं अर्थात् उसमें ताप न्यून होता है, इससे शीतल सी होती हैं और उनसे (गाः) पृथिवी आदि लोक (अरुषीः) रक्तगुणों से (अयुक्षत) युक्त होते हैं। जो (अरुषीः) रक्तगुणवाली सूर्य की उक्त किरणें (वयुनानि) सब पदार्थों का विशेष ज्ञान वा सब कामों को (अक्रन्) कराती हैं वे (पूर्वथा) पिछले-पिछले (रुशन्तम्) अन्धकार के छेदक (भानुम्) सूर्य के समान अलग-अलग दिन करनेवाले सूर्य का (अशिश्रयुः) सेवन करती हैं, उनका सेवन युक्ति से करना चाहिये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जो सूर्य की किरणें भूगोल आदि लोकों का सेवन अर्थात् उनपर पड़ती हुई क्रम-क्रम से चलती जाती हैं, वे प्रातः और सायङ्काल के समय भूमि के संयोग से लाल होकर बादलों को लाल कर देती हैं और जब ये प्रातःकाल लोकों में प्रवृत्त अर्थात् उदय को प्राप्त होती हैं तब प्राणियों को सब पदार्थों के विशेष ज्ञान होते हैं। जो भूमि पर गिरी हुई लाल वर्ण की हैं वे सूर्य के आश्रय होकर और उसको लाल कर ओषधियों का सेवन करती हैं, उनका सेवन जागरितावस्था में मनुष्यों को करना चाहिये ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे विद्वांसो याः अरुणाः स्वायुज उषसो भानवः वृथोदपप्तन् गा अरुषीरयुक्षत युञ्जते। या अरुषीर्वयुनान्यक्रन् पूर्वथा पूर्वा इव पूर्वदैनिक्युषा इव परं परं रुशन्तं भानुमशिश्रयुस्ता युक्त्या सेवनीयाः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) ऊर्ध्वे (अपप्तन्) पतन्ति (अरुणाः) आरक्ताः (भानवः) सूर्यस्य किरणाः (वृथा) (स्वायुजः) याः सुष्ठु समन्ताद्युञ्जन्ति ताः (अरुषीः) आरक्तगुणाः (गाः) पृथिवीः (अयुक्षत) युञ्जते (अक्रन्) कुर्वन्ति (उषसः) प्रातःकालीनाः सूर्यस्य रश्मयः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (वयुनानि) विज्ञानानि कर्माणि वा (पूर्वथा) पूर्वा इव। अत्र प्रत्नपूर्व०। [अ० ५। ३। १११। ] इत्याकारकेण योगेनेवार्थे थाल् प्रत्ययः। (रुशन्तम्) हिंसन्तम्। रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। निरु० २। २०। (भानुम्) सूर्य्यम् (अरुषीः) अरुष्य आरक्तगुणाः (अशिश्रयुः) श्रयन्ति सेवन्ते। अत्र लङि प्रथमस्य बहुवचने विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने श्लुः। सिजभ्यस्तेति झेर्जुस्। जुसि च०। [अ० ७। ३। ८३। ] इति गुणः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - ये सूर्यस्य किरणा भूगोलान्सेवित्वा क्रमशो गच्छन्ति ते सायंप्रातर्भूमियोगेनारक्ता भूत्वाऽऽकाशं शोभयन्ति। यदैता उषसः प्रवर्त्तन्ते तदा प्राणिनां विज्ञानानि जायन्ते। ये भूमिं स्पृष्ट्वा आरक्ताः सूर्यं सेवित्वा रक्तं कृत्यौषधीः सेवन्ते ता जागरितैर्मनुष्यैः सेवनीयाः ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी सूर्याची किरणे भूगोलावर क्रमाक्रमाने पडत जातात ती प्रातःकाळी व सायंकाळी भूमीच्या संयोगाने लाल बनून आकाशालाही शोभिवंत करतात. जेव्हा प्रातःकाळी ती (उषेमुळे) सर्व गोलावर उदित होतात तेव्हा प्राण्यांना सर्व पदार्थांचे विशेष ज्ञान होते. जी भूमीवर पडलेली लाल वर्णाची किरणे आहेत ती सूर्याच्या आश्रयाने त्याला लाल करून औषधींचे सेवन करतात. त्यांचे सेवन माणसांनी केले पाहिजे. ॥ २ ॥